Monday, January 18, 2021

देवताओं का रहस्य

देवता क्या थे? हमारे पूर्वज बहुत ही ज्ञानी थे और उस समय लिखने और ज्ञान का प्रसार करने की सुविधा नहीं थी इसीलिए उन्होंने देवताओं की कहानियां बनाई और उसमें गूढ़ रहस्य छुपा कर अगली पीढ़ियों को दे दी।
उन्होंने आज के वैज्ञानिकों से भी आगे की सोच कर सूक्ष्म से लेकर अनंत तक का ज्ञान अर्जन कर लिया था
अगर हम ध्यान से (साधना में ध्यान लगा कर) विश्लेषण करें तो हम पाएंगे की जिन बातों को आज वैज्ञानिक खोज रहे हैं वह इन कहानियों के माध्यम से और वेद पुराणों में हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले ही बता दी थी।
उनका आसानी से लोग पालन कर सके इसके लिए प्रथाएं भी बनाई गई थी इन सभी के पीछे वैज्ञानिक कारण थे जो आम आदमी नहीं समझ सकता इसीलिए उसे प्रथा के नाम पर आगे बढ़ाते रहे।
इन कथाओं में अनेक रहस्य हैं जैसे सूर्य की 7 किरणें आज हम रेनबो के नाम से जानते हैं उसे सूर्य के  7 घोड़ों की उपमा दी गई।

अच्छे काम (भलाई) करने वालों को स्वर्ग एवं भगवान मिलते हैं मतलब अच्छे लोग और अच्छी जगह और बुरे काम करने वालों को नरक एवं राक्षसों अतः बुरे लोगों का साथ मिलता है

ऐसे ही और भी अनेक रहस्य है जिन्हें हम जितना चिंतन करेंगे उतना ही खोज पाएंगे।

आप भी ऐसे गूढ़ रहस्यों को खोजिए और मुझे बताइए मुझे जानकर खुशी होगी।

Sunday, January 17, 2021

सृष्टि का क्रम~ गुलाब कोठारी

                                    सृष्टि का क्रम
हमारे यहां सामाजिक शिक्षा की शुरुआत गुरुकुल पद्धति से हुई थी। छात्र गुरुकुल में ही रहा करते थे। एकमात्र महिला गुरुमाता ही उनका भरण-पोषण करती थीं। समय के साथ बदलते-बदलते हम सहशिक्षा तक आ गए। अधिकांशतः महिलाएं ही गुरु के रूप में उभर कर आ रही हैं। शिक्षा का ढांचा भी बदल गया, विषय बदल गए, जीवन का सारा परिवेश बदल गया।

इस बीच मानव सभ्यता कहां से कहां पहुंची और इस परिवर्तन का समाज में क्या योगदान रहा, इसका आकलन भी कभी नहीं हुआ।

समय के साथ सिनेमा, टी.वी., इंटरनेट आदि ने भी परोक्ष रूप से शिक्षक की भूमिका निभाना शुरू कर दिया। घर को पहला स्कूल आज भी कहा जा सकता है; किन्तु वहां पर माता-पिता के स्थान पर टी.वी. और इंटरनेट शिक्षक बन गए। बालक अकेला भी होने लगा और स्वतंत्र भी। जीवन-दर्शन के मूल सूत्र उसके जीवन से बाहर हो गए।

इसका पहला प्रभाव यह हुआ कि आज के बच्चे स्वयं के बारे में कुछ भी नहीं जान पाते। शरीर की भूमिका को प्रधान तो मानते हैं, किन्तु शरीर क्या है और कैसे कार्य करता है, इसमें और क्या क्या गतिविधियां चलती रहती हैं, क्या हमारे नियंत्रण से बाहर है और किसको नियंत्रित किया जा सकता है, आदि विषय अछूते ही रह गए। शरीर के रहने तक-सौ साल तक भी इनकी जानकारी व्यक्ति को नहीं हो पाती। शरीर के साथ ही कर्म जुड़ा है, कर्म के साथ ज्ञान जुड़ा है। पूर्व जन्मों के कर्म और ज्ञान भी साथ-साथ चलते रहते हैं। पूर्व जन्मों के संबंध और ऋणानुबन्ध भी जीवन में बने रहते हैं।

ये बातें तो मात्र रूढ़ियां बनकर रह गईं। मानवीय धरातल की श्रेष्ठता लुप्त हो गई। मानव पेट भरने में जुट गया। पशु बनकर जीना ही उसे सहज लगने लगा। जीवन विकास के लिए कुछ करने को तत्पर दिखाई नहीं पड़ता। त्याग और तपस्या या साधना की मर्यादाएं उसको आकर्षित नहीं करतीं।

भोग और तात्कालिक सुख से आगे अंधकार रह गया। नर ने नारायण बनने की क्षमता खो दी।

नारायण बनने के लिए सूक्ष्म में प्रवेश करना पड़ता है। स्थूल की जानकारी के अभाव में सूक्ष्म तो कल्पना से भी परे हो गया। मूल कारण विस्मृत हो गया। भीतरी ऊर्जाओं और प्राणों का ज्ञान कराने वाली प्रज्ञा का विकास ही अवरुद्ध हो गया। ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा'- प्रज्ञा में ही अदृश्य ऋत को पकड़ने की क्षमता होती है। प्रज्ञा का विकास होता है ब्रह्मचर्य से। ब्रह्म के समान चर्या में बने रहने से। आज सबसे ज्यादा खिल्लियां तो ब्रह्मचर्य की ही उड़ाई जा रही हैं।

जीवन के चार आश्रमों में पहला आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम माना गया था। इसमें शरीर का ही नहीं, मन का, भावना का ब्रह्मचर्य प्रमुख था। भावना के दूषण से भी शरीर के धातु दूषित होते हैं, यह एक नित्य-सत्य है। जो भी अन्न हम ग्रहण करते हैं, पहले उनका रस बनता है। शेष मल रूप में बाहर निकल जाता है। रस से रक्त बनता है, रक्त से मांस बनता है, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से शुक्र बनता है। हर क्रम में शेष भाग विभिन्न मलों के रूप में बाहर निकल जाता है। ये शरीर के सप्त धातु हैं। इसी प्रकार हमारे विचारों के रूप में जो अन्न बुद्धि ग्रहण करती है, उसका पाचन होता है। हमारे मन में जो भाव और अनुभूतियां होती हैं, उनका पाचन होती है। इनका प्रभाव हमारी अन्तःस्रावी ग्रंथियों पर पड़ता है। इनके रसायन बदल जाते हैं और रस के स्वरूप में परिवर्तन लाते हैं। इससे आगे भी सारी धातुओं का निर्माण प्रभावित होता है।

यह तो हुआ भौतिक स्वरूप। इसकी जांच मेडिकल साइंस में हो सकती है। मेडिकल साइंस स्थूल से आगे सूक्ष्म में नहीं जाता। हमारा अन्न चन्द्रमा से आता है। अन्न से मन बनता है, ओज बनता है। वीर्य या शुक्र से आगे की अवस्था है। सूक्ष्म अवस्था है। अन्न और मन दोनों का ही स्वामी चन्द्रमा है। बुद्धि का स्वामी सूर्य है। चन्द्रमा से ही हमारी पितृ शक्तियां प्राप्त होती हैं। हमारे शुक्र में सात पीढ़ियों के अंश समाहित रहते हैं। भावी सन्तानों में यही अंश शुक्र के माध्यम से पहुंचता है। पूर्वजों के गुण लक्षण इसी क्रम से आगे से आगे बढ़ते हैं। यही सृष्टि का क्रम है।

प्रति सृष्टि के क्रम में मन धीरे-धीरे प्राण और वाक् से विरक्त होता हुआ विज्ञान और आनंद भाव की ओर बढ़ने लगता है। अर्थ और काम से निवृत्त होता हुआ मोक्ष को लक्षित करता है। ऊर्ध्वगामी होने लगता है। शुक्र की अल्पता से चाहते हुए भी यह कार्य संभव नहीं होता। शुक्र बाहुल्य ही सूक्ष्म ऊर्जाओं में परिवर्तित होता हुआ ओज और मन का निर्माण करता है। तभी सूक्ष्म में प्रवेश संभव होता है।

स्थूल प्राण इस शुक्र का मात्र भोग में उपयोग है, इसीलिए पशुवृत्ति माना गया है। इसमें सन्तति विकास भी नहीं है और मानव होने का लाभ भी छूट जाता है। सातों पीढ़ियों की शक्तियों का अपमान होता है। ऐसा नर कभी नारायण बनने लायक नहीं होता।

प्राण इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना में प्रवाहित होते हैं। सूक्ष्म प्राणों का प्रवाह सुषुम्ना के भीतर ब्रह्माणी, चित्राणी और वज्रणी नाड़ियों में होता है। ये भी मूलाधार से आज्ञा-चक्र पर्यन्त जुड़ी रहती हैं। आज्ञा-चक्र को ही प्रज्ञाचक्षु कह सकते हैं। सूक्ष्म प्राण ही स्थूल प्राणों का नियंत्रण करते हैं। ये ही मन के भावों से जुड़ते हैं। स्त्री पुरुष- बीज के लिए पृथ्वी या धरती का कार्य करती है।
बीजाधान के आगे उसे आवरित करना, पोषित और पल्लवित करना उसका अधिकार क्षेत्र है। इसमें पुरुष केवल भाव प्रधान व्यवहार से सिंचित करता रहता है। बीज के अनुरूप ही सन्तति की पहचान होती है। लेकिन स्त्री के लिए ब्रह्मचर्य की वैसी मर्यादा नहीं है। शरीर उसका भी चन्द्रमा की कलाओं से चलता है। चन्द्रमास के अनुसार ही उसकी मासिक क्रिया भी रहती है; किन्तु संग्रहण का कार्य नहीं होता।

स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक कहे जाते हैं। अकेले रूप में दोनों का ही कोई अर्थ नहीं रह जाता। सृष्टि के विकास क्रम में दोनों की ही अपनी-अपनी भूमिका है, जिसमें परिवर्तन संभव नहीं है। आज जो परिवर्तन का दौर चल पड़ा है उसे भी इसी दृष्टि से देखना पड़ेगा। कोई भी स्त्री-पुरुष स्वयं में स्वतंत्र नहीं है। उसको सम्पूर्ण सृष्टि का अंग बनकर जीना पड़ता है।

हम सब सूक्ष्म ऊर्जाओं और तरंगों से एक-दूसरे से जुड़े हैं। हमारे जीवन का संचालन प्रकृति करती है। केवल अपने वर्तमान कर्मों से भविष्य का निर्माण कर लेना ही हमारे हाथ में है। अतः, वर्तमान ही सबसे मूल्यवान है। इसका उपयोग भी गहन चिन्तन के साथ ही होना चाहिए। प्रवाह में व्यक्ति के नियंत्रण और मर्यादाएं छूटने का डर रहता है। अनजाने में अधोपतन होने लगता है।

यह साधारण-सी बात है कि बीज और धरती की श्रेष्ठता पर ही फल की श्रेष्ठता निर्भर करती है। आज दोनों की श्रेष्ठता पर ही प्रश्न चिह्न लगते जा रहे हैं। इसके फल भी हमें ही भोगने पड़ेंगे।


~गुलाब कोठारी (प्रधान संपादक पत्रिका समूह)
संस्कारों से जुड़ा यह स्तंभ नई पीढ़ी को भी पढ़ाएं।

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