कृष्ण ने गीता में एक बार स्पष्ट कर दिया कि विश्व में मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह बात एक नहीं कई स्थानों पर भिन्न-भिन्न परिपेक्ष्य में आधिकारिक रूप से कही है। संस्कृत भाषा में सात विभक्तियां होती हैं-अहम् (में), माम् (मुझको), मया (मेरे द्वारा), मह्यम् (मेरे लिए), मत् (मेरे से), मम (मेरा), मयि (मुझमें)। कृष्ण ने जो कुछ कहा उत्तम पुरुष में कहा। स्वयं ही सृष्टा बनकर अपनी विभूतियों का तथा अपने विराट् स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। इन तथ्यों को भी इतनी स्पष्टता दी है कि कहीं शंका न रह जाए। यथा-मैं ही वासुदेव हूं, मैं ही कृष्ण हूं, अर्जुन हूं।' दूसरी ओर कह रहे हैं-'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।' तब कृष्ण के बाहर कौन जीव बचा? पहचानना इसलिए कठिन है कि-'नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः।' कैसा छलिया रूप है कृष्ण का! मेरी प्रकृति ही माया है, मुझे ही आवृत्त किए है। उसके भीतर भी मैं ही प्रतिष्ठित हूं। मेरे ही संकेत पर कार्य करती है। विज्ञान का नियम है कि कोई भी वस्तु बनती है, तब सर्वप्रथम केन्द्र (नाभि-हृदय) का निर्माण होता है। कृष्ण कहते हैं कि सबके हृदय में भी में ही ईश्वर बनकर रहता हूं।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति ।'
अर्थात्-जड़-चेतन सबके हृदय में में बैठा हूँ। लोक व्यवहार में तो हम जड़ को निर्जीव मानते हैं किन्तु वेद-विज्ञान चेतना-युक्त (सुप्त) मानता है। जड़ पदार्थों में इन्द्रियों का अभाव है। निर्जीव होते तब लोहे में जंग कैसे लग सकता है! वनस्पति की सजीवता पर तो अनेक वैज्ञानिक प्रयोग कर चुके हैं। किन्तु मुख्य बात यह है कि वेद में विज्ञान शब्द की जो व्याख्या है, वह आधुनिक विज्ञान से कुछ भिन्न ही है। आधुनिक विज्ञान मूलतः उपकरणों पर आधारित है। प्रयोगकर्ता प्रयोग का अंग नहीं बनता। वेद-विज्ञान में तो शरीर ही उपकरण बनता है। इसका कारण स्पष्ट है। हमारे शरीर के तीन अश-मन, बुद्धि तथा आत्मा शरीर के भीतर ही है। सृष्टि के स्थूल- कारण शरीर, अव्यय अक्षर-क्षर जैसी संस्थाएं, प्राण आदि तत्त्व सभी सूक्ष्मतर हैं। अदृश्य हैं। उपकरणों की क्षमता के बाहर हैं। शरीर भी ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति है। आप शरीर के स्वरूप तथा क्रियाकलापों को समझकर सृष्टि रचना एवं गतिविधियों को भलीभाति समझ सकते हैं। दोनों के सिद्धान्त एवं घटक समान ही हैं।
संस्कृति और संस्कृत दोनों स्वतंत्र विश्व हैं, वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित है। इसका श्रेष्ठ उदाहरण वैदिक शब्द ह्य' ही है। यह हृदय शरीर का अवयव नहीं हैं। न ही हमारा मन है। बल्कि जिसको केन्द्र या नाभि कहा है, उसी की हृदय संज्ञा है। वेद-विज्ञान इसी शब्द में इसके स्वरूप को प्रकट कर देता है। मूल शब्द है-इदयन्। तन है-ह- द-यम्। जो शक्ति वस्तु का संग्रह करती है, लेती है, वह आदान-ह-है। जो शक्ति आए हुए पदार्थों का विसर्जन करती है-फैकती है (प्रदान) वह 'द' से कही गई है। तीसरी नियामक शक्ति द्वारा आदान-विसर्ग प्रक्रिया नियंत्रित रहती है। यह प्रतिष्ठा शक्ति है। इन तीनों की समुचित अवस्था का नाम है-हृदय। व्यवहार में प्राण द है, अपान 'ह' है, व्यान यम् है।
इन सबका अर्थ है-गति। गति जीवन का पर्याय है, स्थिति मृत्यु है। प्राण-अपान-व्यान भी एक ही प्राण की विभिन्न स्थितियां हैं। लेने का नाम है-'ह' और देने का नाम है-'द'। इन्हीं का नाम है आगति और गति। केन्द्र से बाहर की ओर जाना गति, बाहर से केन्द्र की ओर आना आगति। प्रत्येक क्रिया के लिए एक निष्क्रिय धरातल भी चाहिए। इसके अभाव में क्रिया का संचार ठहर जाता है। आदान-विसर्ग रूप क्रिया भाव जिस प्रतिष्ठा तत्त्व के आधार पर नियंत्रित-व्यवस्थित बने रहते हैं, उस क्रिया को नियमन कहते हैं। इसका अर्थ है नियंत्रणात्मक स्तंभन। यही तीसरा तत्त्व 'यम्' कहलाता है। जो गति रूप क्रियाओं का नियमन करता है-'नियमयति यत् सर्वान् गत्यागति भावान्।' इस यम् के केन्द्र को व्यवहार में 'स्थिति' कहते हैं।
गति-आगति-स्थिति को वैदिक परिभाषा में क्रमशः इन्द्र-विष्णु-ब्रह्मा माना गया है।
गति-आगति-स्थिति एक ही तत्त्व के तीन विकास रूप ब्रह्मा-विष्णु- इन्द्र त्रय कहलाते हैं। 'एकामूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मा-विष्णु- महेश्वराः।' स्थिति है गति समष्टि। दो अथवा अधिक विरुद्ध दिशा में बहने वाली गतियों की समन्वित अवस्था ही स्थिति है। जब गति और आगति एक ही केन्द्र बिन्दु पर मिलते हैं-समभाव में-तब यही गति स्थिति कहलाती है। विरुद्ध गतियों का केन्द्र बिन्दु पर निपात ही स्थिति है। एक ही गति बाहर जाती हुई-गति, केन्द्र की ओर आती हुई-आगति तथा समष्टि गति रूप स्थिति कहलाती है। इसी गति तत्त्व से हृदय रूपी तीन गतियों का विकास होता है। जब आगति भाव केन्द्र की स्थिति में समाविष्ट होता है, तो संकोचगति का विकास होता है। जब गति भाव स्थिति में समाविष्ट होता है तो विकास गति का स्वरूप निर्मित होता है। इन्हीं का अन्य नाम स्नेह गति-तेजगति (सोम-अग्नि रूप) है। इस प्रकार एक ही प्राण गति-अक्षर या मूल प्रकृति-पांच भावों में परिणत हो जाती है। गति-आगति-स्थिति रूप में ये तीनों अन्तर्यामी तत्त्व कहे जाते हैं। शेष दोनों गतियों (संकोच-विकास) को बाह्य या सूत्रात्मा कहते हैं। ये
अक्षर प्राण की पंचाक्षर कलाएं होती हैं।
विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार जैसे अन्धकार प्रकाश को अपने गर्भ में लिए बिना अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता, वैसे ही ऐसी कोई गति। नहीं है, जिसके गर्भ में स्थिति प्रतिष्ठित न हो। इसी में गति भाव की सुरक्षा है। यदि गति के गर्भ में से स्थिति को पूर्णतः निकाल दिया जाता है, तो गति भी स्थिति रूप में परिणत हो जाएगी। इसी प्रकार स्थिति भी गतिभाव को गर्भ में रखकर ही सुरक्षित रहती है। यदि स्थिति के गर्भ में से गति भाव को पूर्णतः निकाल दिया जाए, तो यह स्थिति गति रूप में परिणत हो जाएगी। यह है इस वेद शास्त्र की वैज्ञानिक दृष्टि।
प्रलयकाल में सलिल समुद्र में ही विष्णु निद्रामग्न हैं, शेष शैया पर। सम्पूर्ण समुद्र ही विष्णु है। लहरें पैदा करने वाला बल-शेषनाग-भी शान्त है। समुद्र में स्थान-स्थान पर प्राणाग्नि रूप प्रकाश स्पन्दित रहता है। यही अग्नि आवृत सोम से पोषित होता हुआ पुनः विकसित होता रहता है। जहां-जहां भी यह प्राणाग्नि रूप ब्रह्म स्पन्दित रहता है, वहीं-वहीं विकास पाता है। वह स्थान ही विष्णु की नाभि कहलाता है। प्रत्येक ब्रह्म एक ब्रह्माण्ड का रूप लेता है। प्रलय अवस्था पर अंधकार (कृष्ण) का आधिपत्य रहता है। वरुण जल का और दैत्यों का अधिपति है। जल मग्न देवताओं पर असुरों के आक्रमण होते रहते हैं। दुर्गा सप्तशती प्रलय अवस्था, आसुरी आक्रमणों तथा शक्ति स्वरूप की भिन्न-भिन्न भूमिकाओं का विस्तार प्रकट करती है। यह भी सिद्ध हो जाता है कि सम्पूर्ण सृष्टि अंधकार से ही होती है।
ब्रह्म ही विस्तार पाकर ब्रह्मा बनते हैं। इस प्राणाग्नि से श्रद्धा सोम द्रवित होता है और परमेष्ठी समुद्र बनता है। स्वयंभू ब्रह्मा और पारमेष्ठ्य सोम के युगल से सूर्य का स्वरूप विकसित होता है। ब्रह्मा जनक हैं, परमेष्ठी माता। तीनों लोकों का विस्तार और स्वरूप भिन्न है, किन्तु एक ही केन्द्र पर टिके हैं। सूर्य, परमेष्ठी लोक की परिक्रमा करता है, 25 हजार वर्षों में। परमेष्ठी, स्वयंभू की परिक्रमा करता है।
सृष्टि में एक ही प्राणाग्नि का विस्तार होता जाता है। एक
ही तत्त्व बीज बनता है और वही एक वृक्ष (अश्वत्थ) रूप में व्यापक बनता चला जाता है। यह प्रसार या विस्तार भी इसी तरह होता है कि कोई किसी से असम्बद्ध नहीं रहता । पेड़ का प्रत्येक पत्ता जिस प्रकार जड़ों के साथ-साथ पेड़ के प्रत्येक अंग-तना, टहनियों, फूलों, फलों आदि-से जुड़ा ही रहता है, वैसे ही सृष्टि का प्रत्येक निर्माण एक-दूसरे से बंधा रहता है। जो अलग हुआ, उसी की मृत्यु हुई। वैसे तो मृत्यु भी सृष्टि का ही एक स्वरूप है।
सम्पूर्ण पेड़ में उस एक बीज के प्राण ही प्रवाहित रहते हैं। यही है 'ममैवांशो जीवलोके..', इसमें संशय कहां है? सम्पूर्ण चौरासी लाख योनियां इसी अश्वत्थ के पर्ण-पुष्प हैं। प्रत्येक अंश में प्रकृति के सभी घटक उपलब्ध हैं। प्रकृति के नियम प्रत्येक लोक की प्रजा पर समान रूप से लागू रहते हैं।
कृष्ण किसी के लिए, कोई कृष्ण का, कृष्ण सब के लिए। सभी कुछ कृष्ण है, अन्यथा कुछ भी नहीं। सृष्टि में कार्यों की श्रेणियां और स्वरूपों का व्यापक विभाजन किया गया है। सृष्टि की व्यापकता इस व्यवस्था के अभाव में संभव नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि स्थूल, सूक्ष्म और कारण में कार्यरत है। कहीं माया, योगमाया, महामाया, प्रकृति (परा-अपरा) आदि को व्यवस्था का भार सौंपा गया है।
कृष्ण कहते हैं कि ये मेरी ही प्रकृतियां हैं
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥' (7/4 गीता) 'अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥' (7/5 गीता)
इसका अभिप्राय क्या हुआ? यही कि 'ब्रह्म ही अपनी इच्छा से-एकोहं बहुस्याम्-हो रहा है। कहीं भी कोई दूसरा नहीं है। वही कर्ता, भर्ता, भोक्ता है, वही अकत्ता, विकर्ता भी है।'
ब्रह्म ही 84 लाख योनियों के स्वरूप धारण करता है। एक शरीर में यात्रा पूरी करके दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है। प्रत्येक शरीर में ब्रह्म वही है। हाथी हो या चींटी, आत्मा वही है। आत्मा स्थान अवरोधक नहीं है। स्वामी विशुद्धानन्द जी ने सूर्य किरणों पर प्रयोग करके वस्तु स्वरूप परिवर्तन के कई उदाहरण प्रस्तुत किए थे। वे कहते थे-प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में प्रकृति के सभी घटक होते हैं। मात्रा-भेद से स्वरूप-भेद पैदा होता है।
सृष्टि के भेद भी मुख्यतः दो ही होते हैं। एक ऊर्जा रूप शब्द सृष्टि, दूसरी पदार्थ रूप अर्थ सृष्टि। चूंकि दोनों के मूल में ब्रह्म ही है, अतः दोनों एक से दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं। अग्नि ही ऊपर जाकर सोम बन जाता है, सोम ही नीचे आकर अग्नि बन जाता है। दोनों अविनाभूत हैं-साथ-साथ रहते हैं। पुरुष स्त्री में भी दोनों-दोनों भाव होते हैं। इसीलिए इनको अर्द्धनारीश्वर कहा जाता है। इन्द्र और विष्णु के साहचर्य से ही ब्रह्मा की प्रतिष्ठा है।
कृष्ण ने अपनी विभूतियों की चर्चा भी की और विराट् रूप भी दिखाया। संदेश तो स्पष्ट था ही कि सातों लोकों में अणु से लेकर महत् तक में ही हूं। मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं। कितना कठिन कार्य होगा-पेड़ के हर पत्ते में बीज के अस्तित्व को देख पाना। सृष्टि के हर अणु में कृष्ण की उपस्थिति का प्रत्यक्ष कर पाना। तब यहां प्रश्न उठता है कि जब सम्पूर्ण सृष्टि में कृष्ण ही है, अन्य कोई तत्त्व है ही नहीं, तब प्रत्येक जड़-चेतन इकाई के कार्यों का लक्ष्य क्या है? क्या वृक्ष की कोई इकाई-फल, फूल, पर्ण, जड़ादि अपने
लिए कार्य करते हैं? क्या ये सब एक-दूसरे के लिए कार्य करते हैं? क्या सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी स्वयं के लिए अस्तित्व में हैं, अथवा एक-दूसरे के लिए? क्या शरीर का कोई अंग स्वयं के लिए कार्य करता है या आपस में एक-दूसरे के लिए कार्य करते हैं? नहीं, कभी नहीं, असंभव! केवल मानव ही अपने लिए कार्य करता है। वृक्ष को नहीं मालूम कि उसका फल कौन खाएगा? प्रकृति ने हर फल पर खाने वाले का नाम लिख दिया है। हर छाया का सुख भोगने वाले का नाम भी लिखा है। यह तो सत्य है ही कि, कोई बीज अपने फल नहीं खाता-सिवाय मनुष्य के। मनुष्य ऐसा बीज है जो पेड़ तो बनना चाहता है, किन्तु जमीन में गड़ने को तैयार नहीं। मनुष्य को देखकर सहज ही समझ में आ जाएगा कि सृष्टि में असुर प्राण देव प्राणों से तीन गुना अधिक हैं।
कृष्ण ने गीता में जीने का तरीका समझा दिया है। बीज बनो, पेड़ बनो, फल की कामना मत करो। बल्कि इससे भी एक कदम आगे-फल खाने का सपना भी मत देखो। फल के बंटवारे का कार्य प्रकृति करेगी। जड़ को प्राप्त अन्न प्रत्येक पत्ते को स्वतः पहुंच जाता है। उससे अधिक प्राप्त करने का संघर्ष वहां नहीं है। पेड़ को पता नहीं, पत्तों, फूलों को पता नहीं, कौन भोगेगा फलों को? कृष्ण कह रहे हैं, सारे कर्म मुझको अर्पण कर दो।
मैं कौन? तू मिथ्या! कृष्ण में, अर्जुन में, अर्जुन के अन्तस् में मैं। तू कौन? में ही गीता सुना रहा हूं, मैं ही सुन रहा हूं। तू कौन? तेरे भीतर में ही हूं। तेरी आत्मा में मैं ही ईश्वर प्रजापति, में ही जीव प्रजापति। कृष्ण ईश्वर है, कृष्ण ही जीव है। साक्षी रूप ईश्वर गीता का वक्ता, जीव श्रोता। कृष्ण कह रहे हैं कि | तेरा भ्रम ही है कि दोनों भिन्न हैं। वास्तव में अभेद ही नहीं, एक ई ही है। दो हैं ही नहीं। तब तेरे सारे कर्म हैं तो मेरे ही। मैं तेरे भीतर हूँ। अतः सारे कर्म तू अपने को (भीतर बैठे हुए मुझको) ही अर्पित कर दे।
यह तथ्य भी स्पष्ट हो गया कि सृष्टि जड़ और चेतन के योग से चलती है। शरीर जड़ है, अत्मा चेतन। शरीर का निर्माण माता-पिता करते हैं। आत्मा सूर्य का अंश है। 'सूर्यः आत्मा जगतस्तस्थुषश्च..। महत् लोक में जीव की अहंकृति-प्रकृति- आकृति का निर्माण होता है। पंचाग्नि के क्रम से सूक्ष्म से स्थूल स्वरूप पांच स्तरों पर प्राप्त होता है। अन्न से ही शरीर का निर्माण होता है, अन्न के माध्यम से ही जीव शरीर (मां के) तक पहुंचता है। शरीर उत्पादक नहीं होता, बीज का संग्रह करता है, सुरक्षित रखता है। बीज की स्थूल देह शुक्र में रहती है। इस देह में आत्मा रहती है, जो डिंब से योग करती है। जड़ भी कृष्ण है, चेतन भी कृष्ण है।
इस सारे परिदृश्य में हम कहां हैं? काश! हम कृष्ण को सुन सकें।
'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ (18/66 गीता)
इसका अर्थ इतना ही है कि मैं तेरे भीतर बैठा हूं। तू मेरी (अपनी ही) शरण में आ जा। यह बात अच्छी तरह तेरी समझ में आ जानी चाहिए कि कोई अन्य शरण है ही नहीं। बस, तू ही तेरी शरण है। यह बात सृष्टि के प्रत्येक प्राणी पर लागू होती है। प्रत्येक प्राणी के भीतर वही है। यही वसुधैव कुटुम्बकम् है। जित देखू तित तोय। यही कृष्ण कह रहे हैं- मैं सातों विभक्तियों में हूं, अलग-अलग परिवेश बताकर। यह बोध मन में दृढ़ हो जाना चाहिए कि जो है-ब्रह्म ही है। मैं भी ब्रह्म, तू भी ब्रह्म, यह भी ब्रह्म, वह भी ब्रह्म।
यह तो हुई सिद्धान्त की बात। व्यवहार में कैसे समझें? ब्रह्म जिस मार्ग से जीव में प्रवेश करता है, जीव जिस प्रकार स्थूल देह में प्रवेश करता है, जिस-जिस मार्ग से आता है, उसी मार्ग से पुनः ब्रह्म तक पहुंच सकता है। खाद्य यदि सूर्य मार्ग से पृथ्वी पर अवतरित होता है, तो वापसी का मार्ग सूर्य से बाहर का नहीं हो सकता। इसी प्रकार बीज का उद्गम भी पिता से, पिता की ओर जाता दिखाई पड़ता है। कहावत प्रसिद्ध ही है - 'पिता वै जायते पुत्रो।' पीछे जाते-जाते एक स्थान ऐसा भी आएगा, जहां से और पीछे नहीं जा सकेंगे। वही हमारा पिता होगा, ईश्वर होगा, आगे ब्रह्म होगा।
कण, कर्मों की व्याख्या विस्तार से करने हैं। कयों के साथ
प्रकृति का. वर्णों का, आश्रम व्यवस्था के सम्बन्ध र किए। विद्या अविधा के स्वरूप का वर्णन किया। ये सारा का सारा जंजाल उलझाने वाला भी है। व्यक्ति इसमें खो गया तो भटक भी सकता है। अतः कर्म की एक ही व्याख्या में सम्पूर्ण दर्शन को समेट दिया। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते...। जिस प्रकार चौरासी लाख योनियों में जीव अपने कमीं के फल भोगता है भोग समाप्त होते ही शरीर बदल लेता है, मनुष्य की भी केवल कर्म करना चाहिए। फल स्वयं प्रकृति देगी। गहराई से विचार करने पर जान पड़ता है कि कर्म भी प्रकृति से ही प्रवृत्त होता है। इसका आधार पूर्व-पूर्व के कर्म होते हैं। आपको बिना प्रतिक्रिया के भोगने ही पड़ते हैं। फल पूरे भोगते ही शरीर छूट जाता है। यदि हमने अपनी ओर से भिन्न रूप में प्रयास किए, फलों को लक्ष्य बनाकर कार्य किया, तो उनके नए फल भोगने के लिए भी नया जन्म लेना पड़ेगा । यही मोक्ष-मार्ग की बड़ी बाधा है।
एक अन्य प्रश्न भी उठ सकता है। मान लिया जाए कि मैंने अपना स्वरूप समझ लिया कि में ही कृष्ण हूं-ब्रह्म हूं। तब 'अवतार' शब्द का अर्थ क्या और प्रयोजन क्या? क्या कर लंगा जानकर? क्या इसका अर्थ यह नहीं होगा कि हर प्राणी ही कृष्ण है-अवतार है? कृष्ण कितनी रहस्यपूर्ण बात कह रहे हैं।
यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत!
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥' (4/7 गीता)
'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥' (4/8 गीता)
सच बात यही तो है। हर व्यक्ति कृष्ण है। यदा-यदा अर्थात् जिस भी क्षण, किसी के सामने भी, धर्म प्रताड़ित होता है, आसुरी वृत्तियां हावी होने लगती हैं, मैं तत्काल उपस्थित हो जाता हूँ। कृष्ण के रूप में व्यक्ति के जीवन में दो ही लक्ष्य रहते हैं- एक, साधुत्व, सात्विक, लोक संग्राहक पुरुषों की सेवा, रक्षा, सहायता तथा दूसरा, आसुरी शक्तियों का दमन। असुर देवताओं से तीन गुना भी होते हैं और बलवान भी। कृष्ण बनकर ही व्यक्ति इन पर विजय प्राप्त कर पाता है। कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन इस उद्घोष का प्रमाण है।
कृष्ण स्वयं के लिए नहीं जिए। बीज की तरह ओझल रहने का प्रयास किया। छाया और फल आज तक बांट रहे हैं। इसमें एक अन्य रहस्यपूर्ण संदेश है कि यदि स्वयं के कृष्ण स्वरूप को पूर्ण रूप से जानना है, अपनी पूर्णता और अच्युत भाव के प्रति आश्वस्त होना है तो गीता को पढ़ो मत, सुनो मत। गीता के कृष्ण बनो, स्वयं को सुनाओ। तुम ही कृष्ण हो, तुम ही अर्जुन, गीता तुमने रची है, तुम्हारे लिए। न द्वारका और द्वापर का ही कोई अर्थ है, न महाभारत-संग्राम का। वह तो विद्या अविद्या का कर्म क्षेत्र है, देवासुर संग्राम है, भीतर निरन्तर चलता ही रहता है। धर्म के सहारे कर्म पर डटे रहो, ज्ञान वैराग्य-ऐश्वर्य भी प्राप्त होगा और अर्थ-काम-मोक्ष भी मिलेगा।
-गुलाब कोठारी " प्रधान संपादक पत्रिका समूह "का लेख
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